सरस्वती नदी का इतिहास, सरस्वती नदी का उद्गम स्थल, वैदिक समय के दौरान सरस्वती नदी का मार्ग, श्राप के कारण विलुप्त होना पड़ा सरस्वती को
सरस्वती नदी का इतिहास
सरस्वती नदी वैदिक सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण नदी थी ऋग्वेद में सरस्वती नदी की बहुत प्रशंसा और वंदना की गई है ऋग्वेद में सरस्वती नदी को “नदीतमा” की उपाधि दी गई है इस नदी को वैदिक लोगों द्वारा जीवन और ज्ञान का स्त्रोत माना जाता था
वेदों की रचना ब्रह्मवर्त ज्ञानी ब्रह्मा की भूमि में हुई थी दिशध्वती नदी सरस्वती की प्रमुख सहायक नदियों में से एक थी आज यह क्षेत्र आधुनिक हरियाणा और राजस्थान के कुछ हिस्सों के बीच स्थित है इसलिए यही कारण है कि आज भी सरस्वती नदी को ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाता है सरस्वती नदी स्वर्ग रोहिणी पर्वत ग्लेशियर से निकलती है
यमुनोत्री ग्लेशियर स्वर्ग रोहिणी ग्लेशियर से बस थोड़ा सा आगे है पांडवों ने अपना राज्य त्यागने के बाद स्वर्ग रोहिणी पर्वत के ग्लेशियर पर चढ़ाई करने की कोशिश की, इस प्रयास में वे मारे गए यह उस समय में इस नदी के महत्व और पवित्र प्रकृति को इंगित करता है जो आधुनिक समय में गंगा के महत्व के समान है हिमालय की पहाड़ियों से सरस्वती नदी आज के हरियाणा के मैदानी इलाकों में प्रवेश करती थी
सरस्वती नदी ने कुरुक्षेत्र की उत्तरी सीमा का गठन किया और दिशध्वती ने दक्षिणी सीमा बनाई इसलिए कुरुक्षेत्र को ब्रह्माव्रत क्षेत्र की शुरुआत के रूप में माना जाता था और इसलिए वैदिक लोगों के लिए भी यह सबसे पवित्र स्थान था, शायद उसी तरह जैसा हरिद्वार आज के समय में है | सरस्वती नदी का इतिहास |
सरस्वती नदी का उद्गम स्थल
पुरातात्विक प्रमाण के आधार पर हड़प्पा सभ्यता को सिंधु घाटी सभ्यता का नाम दिया गया है किंतु सिंधु तट पर प्राप्त प्राचीन बस्तियों से कई गुना प्राचीन बस्तियों वैदिक सरस्वती नदी के तट पर पाए जाने से इसे सिंधु सरस्वती सभ्यता के नाम से मान्य किया जाने लगा है प्राचीन भारतीय ग्रंथ महाभारत के अनुसार विलुप्त सरस्वती नदी का उद्गम स्थल वर्तमान हरियाणा प्रदेश के यमुनानगर के आदिबद्री नामक स्थान को माना जाता है
इस पवित्र नदी का यह उद्गम स्थल होने के कारण आज यह एक तीर्थ स्थल के रूप में अपनी मान्यता रखता है आज भी हरियाणा के आदिबद्री की शिवालिक पहाड़ियों में छोटे आकार में जल धारा बहती है जो कुछ दूरी पर चलकर समाप्त हो जाती है इसलिए ऐसा भी माना जाता है कि सरस्वती वर्तमान में पाताल में बहती है इस नदी में समय-समय पर प्रवाह तंत्र में बदलाव हुए थे
एक समय यह चंबल की सहायक नदी हुआ करती थी उस समय यह अपना जल यमुना के साथ भी साझा किया करती थी प्रयाग में गंगा, यमुना एवं सरस्वती का संगम माना जाता है असल में यह नदियां यहां कभी नहीं मिलती थी इसके बाद सरस्वती नदी हरियाणा के आधुनिक शहर सिरसा से गुजरती हुई राजस्थान में बहती थी दूसरी ओर दिशध्वती नदी ‘राखीगढ़ी’ से होकर गुजरती थी जो वैदिक सभ्यता का अब तक का सबसे बड़ा उत्खनन शहर है
‘राखीगढ़ी’ के आकार को देखते हुए यह अनुमान लगाया जाता है कि यह कुरु वंश की राजधानी रही होगी कुरु वंश ने ‘ब्रह्मवर्त’ के क्षेत्र और सप्तसिंधु क्षेत्र के कुछ हिस्सों पर शासन किया था इस राजवंश के सबसे महत्वपूर्ण शासकों में से एक भरत थे जिनका नाम अब भारत का गैर अंग्रेजी नाम है इस राजवंश के एक और महत्वपूर्ण राजा “सुदास” थे जिन्होंने 10 राजाओं की लड़ाई लड़ी थी
इस लड़ाई को सबसे महत्वपूर्ण घटना के रूप में माना जाता है जिसने इस क्षेत्र में, वैदिक सभ्यता की जड़ों को, मजबूत किया और वैदिक काल के ‘स्वर्ण युग’ की शुरुआत की थी इस राजवंश में राजा हस्ती ने “हस्तिनापुर” शहर की स्थापना की थी यह शहर महाभारत काल में कुरु वंश की राजधानी था यह कौरवों और पांडवों का युग भी था जो कुरु वंश का हिस्सा थे | सरस्वती नदी का इतिहास |
वैदिक समय के दौरान सरस्वती नदी का मार्ग
हरियाणा से सरस्वती नदी आज के राजस्थान में प्रवेश करती थी और फिर चौलिस्तान रेगिस्तान के रास्ते से आज के पाकिस्तान से बहती थी यह नदी फिर गुजरात के कच्छ क्षेत्र से होकर आज के भारत में प्रवेश करती थी और अरब सागर में विलीन हो जाती थी भूकंप के कारण सरस्वती नदी सहित कई नदियों ने अपना मार्ग बदल दिया यह एक निरंतर घटना है और आज भी होती है
दिल्ली हरिद्वार रिज में वृद्धि से पश्चिम जाने वाली नदियों को पश्चिम की ओर और पूर्व की ओर जाने वाली नदियों को पूर्व की ओर अधिक स्थानांतरित कर दिया इसलिए सतलुज जो कभी सरस्वती नदी की सबसे महत्वपूर्ण सहायक नदियों में से एक थी, उसने अपना रास्ता बदल दिया और सिंधु नदी से मिलना शुरू कर दिया आखिरकार सरस्वती नदी एक समुंदर तक ना जाने वाली नदी बन गई
बलराम द्वारा सरस्वती नदी का रास्ता, महाभारत युद्ध के दौरान अपनी धार्मिक यात्रा में दर्ज किया गया था, जहां उन्होंने बताया कि कैसे सरस्वती नदी चौलिस्तान रेगिस्तान के पास कहीं गायब हो गई थी बाद में सरस्वती नदी की मुख्यधारा ने भी अपना रास्ता बदल लिया और 2000 से 1500 ईसा पूर्व के आसपास सरस्वती नदी अपने पुराने रास्ते से पूरी तरह से गायब हो गई | सरस्वती नदी का इतिहास |
श्राप के कारण विलुप्त होना पड़ा सरस्वती को
पुरानी कथा के अनुसार उन दिनों लक्ष्मी सरस्वती और गंगा भगवान विष्णु के साथ रहा करती थी 1 दिन गंगा ने भगवान विष्णु से कहा कि आप तो लक्ष्मी और सरस्वती से अधिक स्नेह करते हैं इसके बाद गंगा और सरस्वती में झगड़ा होने लगा दोनों के बीच झगड़ा होता देख विष्णु बैकुंठ से बाहर चले गए इसी बीच देवी लक्ष्मी ने गंगा और सरस्वती को शांत करने का प्रयास किया परंतु देवी लक्ष्मी को सफलता नहीं मिली
देवी सरस्वती का क्रोध बढ़ता गया क्रोध में आकर सरस्वती ने देवी लक्ष्मी को श्राप दिया कि तुम हमारे झगड़े को शांत होकर देख रही हो इसलिए तुम जड़ पौधा बन जाओ इसके बाद सरस्वती ने गंगा को श्राप दे दिया कि तुम नदी बनकर पृथ्वी पर जाओ और पापी मनुष्यों के पाप नष्ट करोसरस्वती के इस व्यवहार से देवी लक्ष्मी तो शांत रही परंतु, गंगा ने भी क्रोध में आकर सरस्वती को श्राप दे दिया कि तुम भी नदी बनकर पृथ्वी पर जाओ और पापियों के पाप की भागी बनो इ
सी बीच भगवान विष्णु बैकुंठ वापस लौट आई भगवान विष्णु ने जब देवियों के आपस में दिए श्राप को जाना तो उन्हें बहुत दुख हुआ जब भगवान विष्णु ने देवियों को समझा कर शांत किया तब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने मुक्ति का उपाय जानना चाहा इसके बाद भगवान विष्णु ने कहा कि श्राप का फल तो तुम्हें भोगना ही पड़ेगा लेकिन कलयुग के 10000 वर्ष पूरे होने के बाद आप सभी देवियां पृथ्वी से अपने लोक में आकर वास्तविक स्वरूप में आकर मिल जाओगी
इस बीच आपको अपने अंत से नदियों के रूप में अवतरित होना पड़ेगा और देवी लक्ष्मी तुलसी का पौधा बनेगी माना जाता है कि देवी सरस्वती अब अपने लोक को लौट चुकी है और अब गंगा के स्वर्ग लौटने की तैयारी चल रही है | सरस्वती नदी का इतिहास |