रानी जिंदा कौर का इतिहास,  रानी जिंदा कौर का जन्म,रानी जिंदा कौर कि अंग्रेजों के साथ संधि ,अपने बेटे से दूर किया ,रानी जिंदा कौर की मृत्यु

रानी जिंदा कौर का इतिहास

रानी जिंदा कौर का इतिहास  

एक ऐसी मां जिसे राज्य की रक्षा के लिए उसके मासूम बच्चे से दूर कर दिया गया वह भी वह बच्चा जिसका उसकी प्यारी मां के अलावा इस दुनिया में कोई और सहारा भी न था इसके बावजूद वह ब्रिटिश सरकार के खिलाफ मोर्चा लेती रही

यह दर्द सहन करने वाली कोई और नहीं बल्कि पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह की छोटी पत्नी रानी जिंदा कौर थी इन्होंने पति की मृत्यु के बाद पंजाब का शासन ही नहीं संभाला बल्कि अंग्रेजो के खिलाफ कठोर नीतियां भी अपनाई इनकी इन्हीं रणनीतियों की वजह से अंग्रेज इनसे खौफ खाते थे   

रानी जिंदा कौर का जन्म

रानी जिंदा कौर का जन्म 1817 में हुआ इनके पिता सरदार मन्ना सिंह कुत्तों की रखवाली किया करते थे उन्होंने महाराजा रणजीत सिंह से अपनी बेटी को पत्नी के रूप में स्वीकार करने का अनुरोध किया था महाराजा रणजीत सिंह ने कई शादियां की थी परंतु इन्हें वारिश के रूप में सिर्फ पुत्र खड़क सिंह की प्राप्ति हुई थी खड़क सिंह की भी तबीयत लगातार खराब रहती थी

ऐसे में महाराजा रणजीत सिंह ने 1835 में जिंदा कौर को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया रानी जिंदा कौर महाराज की सभी पत्तियों में बेहद खूबसूरत थी शादी के बाद इन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जिनका नाम “दिलीप सिंह” रखा गया महाराजा रणजीत सिंह उनमें अपने उत्तराधिकारी की झलक देखते थे इसके बाद 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई इसके बाद पंजाब राज्य में अराजकता का माहौल पैदा हो गया शासन के लिए कई हत्याएं व साजिश भी रची गई इस दौरान उनको महाराजा रणजीत सिंह के भरोसेमंद लोगों से विश्वासघात भी मिला

कईयों ने अंदर ही अंदर अंग्रेजों से गुटबाजी कर रखी थी परंतु फिर भी रानी जिंदा कौर ने हार नहीं मानी थी वह लाहौर के एक शक्तिशाली गुट को अपनी ओर करने में कामयाब रही उनके समर्थन से उन्होंने 1843 में दिलीप सिंह को 5 वर्ष की आयु में ही राजगद्दी पर बैठा दिया था अपने बेटे दिलीप सिंह के नाबालिक होने की वजह से वह खुद उनकी संरक्षिका बनी 

रानी जिंदा कौर कि अंग्रेजों के साथ संधि 

इसके बाद वह पंजाब राज्य में एक कुशल शासिका के रूप में उभर कर सामने आई जनता उनसे बहुत ही खुश थी उन्होंने अपने शासनकाल में कई निर्णायक फैसले लिए थे रानी जिंदा कोर अपने वजीर राजा लाल सिंह के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी सेना को शक्तिशाली बनाने का बीड़ा उठाया वह फिर से महाराजा रणजीत सिंह की सेना को बल देने में कामयाब रही इसी दौरान इनके काम को देखते हुए पंजाब राज्य में इन्हें सिख समुदाय की मां के ओदे से भी नवाजा गया

रानी की यह खुशियां ज्यादा दिनों तक नहीं टिकी रही 1845 में ही ब्रिटिश सरकार के खिलाफ प्रथम आंग्ल युद्ध शुरू हो गया इस युद्ध में भी कई स्वयं के जनरलो के विश्वासघात की वजह से हार का मुंह देखना पड़ा था परंतु युद्ध के दौरान रानी जिंदा कोर ने अंग्रेजों के विरुद्ध कई ठोस कदम उठाए उन्होंने अपने सैन्य बल से अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे अंग्रेजी सरकार उनसे खौफ खाने लगी थी

शायद इसीलिए उन्होंने इन्हें ‘विद्रोही रानी’ भी कह कर संबोधित किया था रानी अपनी कुशल नीतियों से ईस्ट इंडिया कंपनी के विरुद्ध मोर्चा लेती रही उनके कड़े फैसले से लगातार ब्रिटिश सरकार परेशान रहने लगी वह उनकी नजरों में झुकने लगी थी इसके चलते प्रथम युद्ध की समाप्ति के समय रानी व ब्रिटिश शासन के बीच एक संधि हुई थी इस संधि के तहत रानी राजकुमार दिलीप की संरक्षिका बनी रही इस बीच भी रानी जिंदा अंग्रेजो के खिलाफ षड्यंत्र रचती रही

उनकी गतिविधियों के चलते ब्रिटिश सरकार उन्हें संदेह की नजरों से देखने लगी अंग्रेजों ने उनके डर से 1848 में उन पर एक अभियोग चलाया इसके बाद उन्हें लाहौर से हटा दिया गया जब द्वितीय सिख युद्ध शुरू हुआ तो रानी जिंदा कौर की अनुपस्थिति में पंजाब कमजोर पड़ गया था जिसके चलते पंजाब पर ब्रिटिश सरकार का कब्जा हो गया रानी जिंदा कोर को चुनार किले में नजरबंद कर दिया गया था

इस दौरान उनकी पेंशन में भी अत्यधिक मात्रा में कटौती कर दी गई थी ब्रिटिश सरकार के द्वारा उन्हें पंजाब मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए कठोर चेतावनी भी दी गई थी गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने जोर देकर कहा वह राज्य के सभी सैनिकों के मुकाबले अधिक मूल्यवान है इसके बाद 1949 में रानी जिंदा एक नौकरानी का भेष बदलकर चुनार किले से भाग निकलने में कामयाब रही कई सौ मील का सफर करने के बाद वह नेपाल पहुंची थी वहां काठमांडू में उन्होंने शरण ली थी 

अपने बेटे से दूर किया 

इतिहासकारों की मानें तो 1857 की क्रांति में भी उन्होंने कश्मीर के महाराजा के साथ बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था इस दौरान उनके 9 वर्षीय पुत्र दिलीप सिंह को अंग्रेजों ने लंदन भेज दिया था रानी को अपने बेटे से दूर होने पर गहरा दुख पहुंचा था वह उससे मिलने के लिए तड़पती रही मगर दुष्ट ब्रिटिश सरकार ने उन्हें उनसे दूर रखा सरकार उस दौरान भी रानी पर नजर बनाए हुए थी राजकुमार दिलीप सिंह वहां रानी विक्टोरिया के दरबार में अपने दोस्तों के संग पले बढ़े थे

रानी जिंदा कौर और बेटे दिलीप सिंह ने एक दूसरे से मिलने के लिए कई प्रयास किए लेकिन वे असफल रहे रानी ने अपने पुत्र के लिए पत्र लिखे मगर उसे दिलीप सिंह तक नहीं पहुंचाया गया उन दोनों के कई पत्र बाद में भी मिले थे जिनको पढ़ने के बाद एक दुखियारी मां की ममता एक बेटे का मां से अद्भुत प्यार की झलकियां देखने को मिलती है इन दोनों को इतना दूर रखने के पीछे एक वजह थी

ब्रिटिश सरकार को इस बात का डर था कि कहीं रानी व दिलीप सिंह के राजनीतिक सोच से नकारात्मक प्रभाव न पड़े इसलिए अंग्रेजी हुकूमत कभी नहीं चाहती थी की मां बेटे कभी मिले महारानी जिंदा कौर अपने बेटे से दूर होने की वजह से कितना उदास थी वह अपने पत्रों में बयां करती है वह कहती है कि जिस बच्चे को उन्होंने 9 महीने अपनी कोख में पाला उन्हें ब्रिटिश सरकार ने उनसे अलग कर दिया है एक मां और बेटे ने कई परेशानियों का सामना किया था इसके बावजूद उनका संबंध और अटूट रहा  

रानी जिंदा कौर की मृत्यु

एक लंबे समय के बाद 1861 में इन दोनों मां-बेटे की मुलाकात संभव हो सकी जिस वक्त दिलीप सिंह अपनी मां से मिलेउस समय वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर थी वह एक आंख से नेत्रहीन भी हो चुकी थी दिलीप सिंह अनुमति प्राप्त करने के बाद अपनी मां को लेकर इंग्लैंड चले गए रानी जिंदा कोर अपने बेटे के साथ बेहद खुश थी उन्होंने उनके साथ वहां लगभग 2 साल बिताए थे

1863 में रानी जिंदा कौर ने इंग्लैंड में ही अंतिम सांस ली महाराजा दिलीप सिंह उनका अंतिम संस्कार पंजाब में करना चाहते थे मगर पंजाब में उनके अंतिम संस्कार की अनुमति नहीं दी गई इसके बाद दिलीप सिंह अपनी मां जिंदा कौर के शव को लेकर मुंबई आए वहां गोदावरी नदी के तट पर उनका अंतिम संस्कार किया बाद में दिलीप सिंह ने अपनी मां के नाम पर स्मारक भी बनाया 

रानी जिंदा कौर का इतिहास