गुरु कृपाचार्य का इतिहास ,गुरु कृपाचार्य का जन्म, पांडवों से बदला , गुरु कृपाचार्य की मृत्यु 

गुरु कृपाचार्य का इतिहास 

गुरु कृपाचार्य कोरवो और पांडवों के गुरु थे इन्हें सात चिरंजीवी में से एक माना जाता है महाभारत के युद्ध में इन्होंने कौरवों की तरफ से युद्ध लड़ा था गुरु कृपाचार्य की गणना सप्तर्षियों में की जाती है गुरु कृपाचार्य धनुर्विद्या में प्रबल थे 

गुरु कृपाचार्य का जन्म

कृपाचार्य महर्षि शर्द्धवान के पुत्र थे महर्षि गौतम के पुत्र शर्द्धवान थे उनकी धनुष और बाण के प्रति विशेष रूचि थी इसके अलावा उन्हें किसी भी विद्या में रुचि नहीं थी अपने तपोबल से उन्होंने सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर लिए थे उन्होंने युद्ध कौशल की अनेक प्रकार की शिक्षाएं प्राप्त कर ली थी

सर्दवान  की तपस्या और अस्त्र-शस्त्र के ज्ञान को देखकर इंद्रदेव को भय हुआ कि कहीं हमारे इंद्रलोक को न छीन ले इसलिए देवराज इंद्र भयभीत रहने लगे उनकी तपस्या को भंग करने के लिए देवराज इंद्र ने अपनी अप्सरा जानपदी को सर्द ऋषि के आश्रम में भेजा जिस समय वह अप्सरा वहां पर पहुंची उस समय वहां का वातावरण अत्यंत रमणीय हो गया था

जब शरद ऋषि अपने आश्रम से बाहर निकले तब उन्होंने उस अप्सरा को देखा और उस पर मोहित हो गए परंतु फिर भी उन्होंने अपने आप पर संयम बनाए रखा था कुछ समय के बाद उनमें विकार उत्पन्न हो गया और उनका शुक्रपात हो गया इसके बाद वह अपना धनुष और बाण छोड़कर फिर से तपस्या में लीन हो गए जिस समय उनका शुक्रपात हुआ था वह सरकंडे पर गिरा और दो भागों में विभाजित हो गया था

कुछ समय के बाद उन दो भागों से दो संतानों की उत्पत्ति हुई एक पुत्र और एक पुत्री का जन्म हुआ उसी समय हस्तिनापुर के राजा शांतनु शिकार खेलने के लिए जंगल में गए हुए थे जंगल में शिकार करते समय राजा शांतनु शरद ऋषि के आश्रम में पहुंचे वहां उन्होंने देखा कि दो बच्चे रो रहे हैं इसके बाद वे उन दोनों बच्चों को अपने साथ राज महल में ले आए उन्होंने उन दोनों बच्चों का नाम एक का कृप और लड़की का नाम कृप्पी रखा

कृप भी अपने पिता के सम्मान धनुर्विद्या में पारंगत थे बड़े होने पर भीष्म पितामह द्वारा उन्हें कोरवो और पांडवों की शिक्षा के लिए नियुक्त किया गया उनकी बहन कृप्पी का विवाह गुरु द्रोणाचार्य से हुआ था लेकिन कोरवो और पांडवों की विशेष शिक्षा के लिए गुरु द्रोणाचार्य को जिम्मेदारी दी गई थी इन्होंने कौरवों का पक्ष लेकर युद्ध किया था क्योंकि इन्होंने उनका नमक खाया था

वैसे धर्म और न्याय के प्रति इन्होंने अपनी रुचि दिखाई थी जिस समय युधिष्ठिर युद्ध प्रारंभ होने से पहले अपने गुरुजनों के पास उनसे युद्ध के लिए अनुमति और विजय के लिए आशीर्वाद मांगने गए तो कृपया चार्य के पास भी गए थे तब इन्होंने कहा था युधिष्ठिर ‘मैं तुम्हारे कल्याण की सदा कामना करता हूं

मैं जानता हूं कि तुम्हारा पक्ष न्याय और धर्म का है कौरवों ने अन्याय के पथ का अनुसरण किया है इसलिए मैं तुम्हें विजय का आशीर्वाद देता हूं, यदि मैं कौरवों का दिया हुआ नमक नहीं खाता तो अवश्य तुम्हारे पक्ष में आकर कौरवों के विरुद्ध युद्ध करता, लेकिन अब ऐसा करना धर्म की मर्यादा के प्रतिकूल होगा इसलिए मैं युद्ध दुर्योधन की ओर से ही करूंगा लेकिन प्रतिदिन प्रात काल उठकर ईश्वर से तुम्हारी विजय के लिए प्रार्थना करता रहूंगा इसके बाद युधिष्ठिर गुरु कृपाचार्य को प्रणाम कर के वहां से लौट जाते हैं महाभारत के अधिकतर पात्रों में यह पक्ष प्रबल रूप में मिलता है सत्य के प्रति इनका पूरा आग्रह था | गुरु कृपाचार्य का इतिहास |

पांडवों से बदला 

जिस समय दृष्टधूमन ने अन्याय से द्रोणाचार्य को मार डाला था तो आचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को इस पर बड़ा क्रोध आया और वह पांडव पक्ष से इसका बदला लेने की बात सोचने लगा एक दिन उसने यह निश्चय कर लिया जिस प्रकार अन्याय और छल से मेरे पिता को मारा गया है उसी अन्याय और छल से मैं पांडवों की सोती हुई सेना को मार डालूंगा

जब उसने आकर कृपाचार्य को अपना यह विचार बताया तो कृपया चार्य ने उससे कहा अश्वत्थामा जो सो रहा हो, जिसने शस्त्र उठा कर रख दिया हो, और रथ- घोड़े आदि की सवारी छोड़ दी हो ऐसे शत्रु का संहार करना उचित नहीं है इसके बाद कृपाचार्य ने कहा यदि तुम पांडवों से बदला लेना ही चाहते हो तो कल प्रातकाल मेरे और कृतवर्मा के साथ चलना

हम खुलकर उनसे मुकाबला करेंगे और तुम्हारे पिता की मृत्यु का बदला चुका लेंगे या तो कल हम शत्रुओं को नष्ट कर देंगे ,या स्वयं वीरगति को प्राप्त कर लेंगे कृपाचार्य के यह शब्द उनकी न्याय और धर्म के प्रति असीम रुचि को अभिव्यक्त करते हैं लेकिन इनके चरित्र में वह दृढ़ता नहीं थी जिससे इनका चरित्र आगे के युगो के लिए एक उदात्त रूप का उदाहरण है | गुरु कृपाचार्य का इतिहास |

गुरु कृपाचार्य की मृत्यु 

महाभारत के युद्ध में कृपाचार्य और गुरु द्रोणाचार्य कौरवों की तरफ से लड़े थे इस युद्ध में द्रोणाचार्य वीरगति को प्राप्त हुए थे गुरु कृपाचार्य दुर्योधन की पराजय के बाद हिमालय की ओर तपस्या करने के लिए चले गए थे गुरु द्रोणाचार्य की मृत्यु के बाद इन्होंने अर्जुन के पोते परीक्षित को धनुर्विद्या सिखाई थी 

| गुरु कृपाचार्य का इतिहास |