दानवीर भामाशाह का इतिहास, दानवीर भामाशाह का जन्म, भामाशाह द्वारा दिया गया दान, भामाशाह की मृत्यु , भामाशाह की हवेली 

दानवीर भामाशाह का इतिहास

भामाशाह का नाम संपूर्ण राजपूताने में उतनी ही श्रद्धा और आदर से लिया जाता है जितना कि महाराणा प्रताप का भामाशाह ने ना केवल तन और मन से मातृभूमि की सेवा की, परंतु जब आक्रमणकारियों से देश की धरती की रक्षा के लिए धन की आवश्यकता थी उस मुश्किल समय में भामाशाह ने अपने सभी संसाधन महाराणा प्रताप और मेवाड़ राज्य को अर्पण कर दिए थे

भामाशाह महाराणा प्रताप से 7 वर्ष छोटे थे जावर माता का विशाल मंदिर भी भामाशाह द्वारा निर्मित किया गया था महाराणा उदय सिंह ने 1610 में भारमल को अपना सामंत बनाकर एक लाख का पट्टा भी दिया था चित्तौड़ की तलहटी में इनकी हस्तीशाला थी और किले में महलों के सामने तोपखाने के पास इनकी बड़ी हवेली थी इससे महाराणा उदय सिंह के काल में इस परिवार की उच्च प्रतिष्ठा एवं स्थिति का प्रमाण मिलता है

दानवीर भामाशाह का जन्म 

भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़ राज्य में 29 अप्रैल 1547 को ओसवाल जैन परिवार में हुआ था इनके पिता का नाम भारमल था जिन्हें राणा सांगा ने रणथंबोर के किले का किलेदार नियुक्त किया था कालांतर में राणा उदय सिंह के प्रधानमंत्री भी रहे भामाशाह बाल्यकाल से मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार रहे थे

भामाशाह दानवीर के साथ काबिल सलाहकार, योद्धा, शासक व प्रशासक भी थे महाराणा प्रताप हल्दीघाटी का युद्ध (18 जून 1576ईसवी) हार चुके थे लेकिन इसके बाद भी मुगलों पर उनके आक्रमण जारी थे धीरे-धीरे मेवाड़ का कुछ इलाका महाराणा प्रताप के कब्जे में आने लगा था किंतु बिना बड़ी सेना के शक्तिशाली मुगल सेना के विरुद्ध युद्ध जारी रखना कठिन था

सेना का गठन धन के बिना संभव नहीं था राणा ने सोचा जितना संघर्ष हो चुका होगा ठीक ही रहा यदि इसी प्रकार कुछ और दिन चला तब संभव है जीते हुए इलाकों पर फिर से मुगल कब्जा कर ले इसलिए उन्होंने यहां की कमान अपने विश्वास सरदारों के हाथों में सौंप कर 1578 में गुजरात की और प्रस्थान करने का विचार किया प्रताप अपने कुछ चुनिंदा साथियों को लेकर मेवाड़ से प्रस्थान करने ही वाले थे कि वहां पर उनके पुराने साथी व नगर सेठ भामाशाह उपस्थित हुए

भामाशाह ने अपने साथ “परथा” भील लाए थे उसके बारे में महाराणा को बताया कि ‘परथा’ ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर पूर्वजों के गुप्त खजाने की रक्षा की और आज उसे लेकर वह स्वयं सामने उपस्थित हुआ है भामाशाह ने कहा मेरे पास जो धन है वह भी पूर्वजों की पूंजी है मेवाड़ स्वतंत्र रहेगा तो धन फिर कमा लूंगा आप यह सारा धन ग्रहण कीजिए और मेवाड़ की रक्षा कीजिए 

भामाशाह द्वारा दिया गया दान 

भामाशाह और उनके बड़े भाई ताराचंद बड़े ही वीर थे इतिहासकारों के अनुसार ईसवी1576 में मुगलों के साथ हुए हल्दीघाटी युद्ध के उपरांत जब महाराणा प्रताप आर्थिक संसाधनों के अभाव में मेवाड़ की पहाड़ियों के जंगलों में कष्ट पूर्ण जीवन व्यतीत कर रहे थे तथा सैन्य प्रबंध हेतु उन्हें आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ रहा था

तब ऐसे समय में भामाशाह ने उन्हें 20हजार स्वर्ण मुद्राएं तथा और 20लाख रुपए की मुद्राएं प्रदान की थी जो कि उस समय 25000 सैनिकों के लिए 12 वर्षों के वेतन हेतु पर्याप्त थी कहते हैं कि यह अपार धन राशि भामाशाह और उनके भाई ताराचंद ने मालवा पर धावा बोलकर लूटी थी और महाराणा प्रताप को यह कहते हुए समर्पित की थी कि यह पहली किस्त है

ब आप सब चिंताएं छोड़ कर मेवाड़ की रक्षा करें इसके बाद भामाशाह की बहादुरी और देश भक्ति देखकर महाराणा प्रताप ने ‘रामा मशानी’ को हटाकर भामाशाह को मेवाड़ का प्रधान बनाया भामाशाह ने मुगलों के साथ संघर्ष के समय दवेश सहित मुगलों के शाही थानों पर आक्रमण में मेवाड़ी सेना का नेतृत्व करते हुए अभूतपूर्व वीरता का परिचय दिया था

दिवेर के युद्ध में भी भामाशाह मेवाड़ी सेना के साथ थे इन्होंने शासन व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने, युद्ध सामग्री जुटाने एवं मुगलों के विरुद्ध युद्ध में महाराणा प्रताप का साथ दिया था भामाशाह को राजकोष के ब्योरे को रखने में तथा उसे अलग-अलग स्थानों पर छुपा कर रखने में इतनी निपुणता प्राप्त थी की वह बड़ी कुशलता से राज्य का खर्च चलाते थे तथा मुगलों को मेवाड़ पर आक्रमण के समय लूटपाट करने के दौरान कुछ भी नहीं मिला 

भामाशाह की मृत्यु 

अपनी मृत्यु 16 जनवरी 1600 से पूर्व उन्होंने अपनी पत्नी को राजकोष से संबंधित सभी बही खाते देते हुए कहा था कि इन्हें सुरक्षित महाराणा अमर सिंह जी तक पहुंचा देना उनकी ईमानदारी तथा स्वामी भक्ति के कारण ही भामाशाह के बाद उनके पुत्र जीवा सिंह को महाराणा अमर सिंह ने मेवाड़ का प्रधान बनाया तथा जीवा सिंह के पुत्र क्षीराज को महाराणा करण सिंह ने मेवाड़ राज्य का प्रधान नियुक्त किया था

इस तरह एक ही परिवार के चार पीढ़ियां अपनी इमानदारी स्वामी भक्ति और राज्य स्थान के कारण मेवाड़ राज्य के प्रधान के सम्मानजनक पद पर आसीन रहे और अपने कुल के गौरव में वृद्धि की थी राणा प्रताप भामाशाह का बड़ा सम्मान करते थे महाराणा प्रताप के समय से ही राजधानी उदयपुर की पंच पंचायत, जाति, भोज, सिंह पूजा आदि विशेष अवसरों पर भामाशाह के मुख्य वंशधर को ही सर्वप्रथम तिलक किया जाता है और मान किया जाता है वर्तमान समय में भी सार्वजनिक कार्यों के लिए अनुदान करने वाले व्यक्तियों को भामाशाह कहा जाता है 

भामाशाह की हवेली 

आज भी चित्तौड़गढ़ में भामाशाह की हवेली बनी हुई है माउंट आबू  मैं जैन मंदिर का निर्माण भी भामाशाह के एक भाई ताराचंद द्वारा करवाया गया था राज्य सरकार भी मेधावी छात्रों को भामाशाह पुरस्कार से सम्मानित करती है अपने 52 वर्षों के जीवन काल में देशभक्ति व दानवीर की भूमिका निभाने वाले भामाशाह की समाधि उदयपुर में है भारत सरकार द्वारा भी इस महान विभूति के नाम का डाक टिकट जारी किया जा चुका है 

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