बाबा दीप सिंह का इतिहास,बाबा दीप सिंह का जन्म,गुरु ग्रंथ साहिब की रचना ,पंजाब के लिए युद्ध ,सिख धर्म की रक्षा
बाबा दीप सिंह का इतिहास
पंजाब की धरती ने अनगिनत शूरवीरो को जन्म दिया है आपको पंजाब के इतिहास में अनेकों ऐसे योद्धा मिल जाएंगे जिनकी बहादुरी के किस्से दुनियाभर में प्रचलित है आज हम ऐसे ही एक योद्धा कि बात करने जा रहे हैं जिनकी बहादुरी की कहानी सुनकर किसी का भी शीश उनके चरणों में झुक जाएगा
उनके नाम से ही दुश्मन थर- थर कांपने लग जाते थे इतिहास के यह एकमात्र ऐसे शूरवीर योद्धा थे जो युद्ध भूमि में सिर कटने के बाद भी उसे हथेली पर रखकर लड़ते रहे बाबा दीप सिंह जी ने युद्ध के दौरान जिस शौर्य और साहस का परिचय दिया उसने आक्रांता को घुटनों पर ला दिया था बाबा दीप सिंह का इतिहास
बाबा दीप सिंह का जन्म
बाबा दीप सिंह जी के पिता भाई भक्तु और माता जिओनी जी अमृतसर के गांव बहु पिंड में रहते थे भाई भक्तों खेती-बाड़ी का कार्य करते थे और भगवान की कृपा से घर में किसी भी चीज की कमी नहीं थी मगर उनकी कोई औलाद नहीं थी जिसके चलते वह हमेशा भगवान से यही प्रार्थना करते थे कि उन्हें अपने जीवन में संतान सुख प्राप्त हो,
एक दिन एक संत महात्मा से उनकी भेंट हुई जिसने उन्हें बताया कि उनके यहां एक बेहद गुणवान बच्चा पैदा होगा और उसका नाम वह दीप रखें कुछ समय बाद 26 जनवरी 1682 को बाबा दीप सिंह जी का जन्म हुआ इकलौता बेटा होने के चलते माता-पिता ने दीप सिंह को बहुत लाड प्यार से पाला था जब दीप सिंह जी 12 साल के हुए तो उनके माता-पिता उन्हें आनंदपुर साहिब ले गए
जहां पहली बार उनकी मुलाकात सिखों के दसवें गुरु “श्री गुरु गोविंद सिंह” जी से हुई जिसके बाद दीप सिंह जी अपने माता-पिता के साथ कुछ दिन वही रुके और सेवा देने लगे कुछ दिनों बाद जब वापस जाने लगे तो गुरु गोविंद सिंह जी ने दीप सिंह जी के माता-पिता से उन्हें यही छोड़ जाने को कहा इस बात को दीप सिंह और उनके माता-पिता ने उसी समय स्वीकार कर लिया
आनंदपुर साहिब में दीप सिंह जी ने गुरु जी के सानिध्य में सिख दर्शन और गुरु ग्रंथ साहिब का ज्ञान अर्जित किया उन्होंने गुरुमुखी के साथ-साथ कई अन्य भाषाएं सीखी थी यहां तक कि स्वयं गुरु गोविंद सिंह जी ने उन्हें घुड़सवारी, शिकार और हथियारों की शिक्षा दी थी 18 साल की उम्र में उन्होंने गुरु जी के हाथों से वैशाखी के पावन मौके पर अमृत छका और सिखों को सुरक्षित रखने की शपथ ली बाबा दीप सिंह का इतिहास
गुरु ग्रंथ साहिब की रचना
इसके बाद गुरुजी के आदेश से बाबा दीप सिंह जी वापस अपने गांव बहु पिंड अपने माता पिता के पास आ गए 1 दिन बाबा दीप सिंह जी के पास गुरुजी का एक सेवक आया जिसने बताया कि हिंदू पहाड़ी के राजाओं के साथ युद्ध के लिए गुरुजी आनंदपुर साहिब का किला छोड़ कूच कर गए हैं इस युद्ध के चलते गुरु जी की मां माता गुजरी और उनके चार पुत्र सभी यहां- वहां बिछड़ गए हैं
इस बात का पता चलते ही बाबा दीप सिंह जी उसी समय गुरु जी से मिलने के लिए निकल पड़े कुछ समय की तलाश के बाद आखिरकार बाबा दीप सिंह जी और गुरु जी की मुलाकात तलवंडी के दमदमा साहिब में हुई यहां पहुंचने पर बाबा दीप सिंह जी को पता चला कि गुरु जी के दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह चमकौर के युद्ध में शहीद हो गए हैं और उनके दो छोटे पुत्र जोरावर सिंह, फतेह सिंह का सरहिंद में बजीर खान ने बेदर्दी से कत्ल कर दिया है
अपने जाने से पूर्व गुरु गोविंद सिंह जी ने “गुरु ग्रंथ साहिब” को पूरा कर बाबा दीप सिंह जी को सौंप दिया और उन्हें उसकी रखवाली की जिम्मेदारी दी बाबा दीप सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में लिखी सभी वाणीयो और शिक्षाओं को पुनः अपने हाथों से लिखा और गुरु ग्रंथ साहिब की पांच प्रतिलिपिया बनाई इन प्रतिलिपिओ में 1 को अकाल तख्त पटना साहिब, श्री तख्त हजूर साहिब,श्री तख्त आनंदपुर साहिब भिजवा दिया
इसके अलावा बाबा दीप सिंह जी ने एक प्रतिलिपि अरबी भाषा में बनाई जिसे उन्होंने मध्य पूर्व में भेजा बाबा दीप सिंह जी सिख धर्म के सच्चे अनुयाई थे बाबा दीप सिंह जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित एक वाणी में भी बदलाव किया था दरअसल गुरु ग्रंथ साहिब की एक वाणी को लेकर बाबा दीप सिंह जी ने भाई मनी जी से कहा कि गुरु वाणी की एक लाइन कुछ इस तरीके से लिखी है- “कि मित्र प्यारे नू, हाल फकीरा दा कहना” उनका विचार था कि इस वाणी की शुरुआत सही नहीं है क्योंकि गुरु फकीर नहीं थे
इसलिए उन्होंने इसमें बदलाव करके इस लाइन को कुछ यूं बनाया “मित्र प्यारे नू, हाल मुरीदा दा कहना” इस बदलाव को लेकर भाई मनी सिंह जी ने बाबा जी से कहा कि इस बदलाव को करने के लिए आपको पंथ के लिए कुछ करना भी पड़ेगा जिसे स्वीकार करते हुए बाबाजी ने ऐलान किया कि आज उनका यह शीश पंथ पर न्योछावर है इसके चलते उन्हें जीते जी शहीद की उपाधि दी गई इसके उपरांत बाबा दीप सिंह जी ने पंत के लिए कई युद्धों में भाग लिया बाबा दीप सिंह का इतिहास
पंजाब के लिए युद्ध
1707 में बाबा दीप सिंह जी ने बाबा बंदा सिंह बहादुर के साथ मिलकर पंजाब की आजादी के युद्ध में भी अपनी भागीदारी दी मगर 1716 में सिख समुदाय दो हिस्सों में बट गया एक समुदाय ‘बंदाई खालसा’ था जो कि बंदा सिंह बहादुर को गुरु गोविंद सिंह जी का आखरी सिख मानते थे और दूसरे थे “तट खालसा” जो कि गुरु जी द्वारा रचित ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानते थे
यहां तक कि इन दोनों समुदायों में श्री हरमंदिर साहिब पर अधिकार को लेकर भी दोनों समुदायों के बीच झगड़े होने लगे थे इस दौरान बाबा दीप सिंह ने दोनों समुदायों के बीच के झगड़े को समाप्त करने के लिए काम किया उन्होंने 2कागजों में एक-एक समुदाय का नाम लिखकर सरोवर में फेंक दिया दोनों कागजों में से ‘तट खालसा’ की पर्ची सरोवर में तैरती रही और दूसरी डूब गई थी इसके बाद दूसरे खालसा समुदाय को हरमंदिर साहिब से जाना पड़ा
1755 में जब भारत में मुगलों का आतंक बढ़ा तो लाचार लोगों की चीख पुकार बाबा दीप सिंह जी के कानों तक पहुंची इस समय अहमद शाह अब्दाली नाम के एक अफगानी शासक ने भारत में बड़ी तबाही मचाई हुई थी वह 15 बार भारत आकर उसे लूट चुका था उसने दिल्ली समेत आसपास के कई शहरों से न सिर्फ सोना हीरे व अन्य चीजें लूटी, बल्कि हजारों लोगों को भी बंदी बनाकर अपने साथ ले गया
इस बात का पता चलते ही बाबा दीप सिंह जी ने अपने सैनिकों की टुकड़ी लेकर अब्दाली के छिपे ठिकानों पर पहुंची इन्होंने वहां मौजूद लोगों को और लूटे गए सामान को जप्त कर लिया और उन्हें वापस ले आए इस बात से गुस्साए अब्दाली ने फैसला कर लिया कि वह सिख समुदाय को पूरी तरह से मिटा देगा जिसके चलते 1757 में अब्दाली का सेनापति जहान खान फौज के साथ हरमंदिर साहब को तबाह करने के लिए अमृतसर पहुंच गया कई सिख सैनिक हरमंदिर साहब को बचाते हुए मारे गए वहीं इस समय बाबा दीप सिंह दमदमा साहिब में थे जब उन्हें इस हमले के बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने उसी समय सेना के साथ अमृतसर की ओर कूच किया युद्ध के समय उनकी उम्र 75 साल थी बाबा दीप सिंह का इतिहास
सिख धर्म की रक्षा
अमृतसर सीमा पर पहुंचने पर बाबा दीप सिंह जी ने सभी सिखों से कहा कि इस सीमा को केवल वही सिख पार करे जो पंत की राह में शीश कुर्बान करने के लिए तैयार है पंत के लिए आह्वान सुनते ही सभी पूरे जोश के साथ आगे बढ़े आखिरकार गांव कोहरवाल में दोनों सेनाएं एक-दूसरे के आमने-सामने हुई युद्ध का बिगुल बजते ही फौजे युद्ध के मैदान में उतर गई युद्ध में बाबा दीप सिंह अपनी 15 किलो वजनी तलवार के साथ दुश्मन पर टूट पड़े
अचानक मुगल कमांडर जमाल खान बाबा जी के सामने उत्तरा इसके बाद दोनों के बीच काफी समय तक युद्ध हुआ आखिर में दोनों ने पूरी ताकत से अपनी अपनी तलवार घुमाई जिससे दोनों के सिर धड़ से अलग हो गए बाबा जी का शीश अलग होता देख एक नौजवान सैनिक ने चिल्लाकर बाबा जी को आवाज दी और उन्हें उनकी शपथ के बारे में याद दिलाया इसके बाद बाबा दीप सिंह जी का धड़ एकदम से खड़ा हो गया
उन्होंने अपना सिर उठाकर अपनी हथेली पर रख लिया और अपने दुश्मनों को मारते हुए श्री हरमंदिर साहिब की ओर चलने लगे बाबा जी को देख सिखों में जोश भर गया कई दुश्मन डर के मारे भागने लगे अंत में बाबा दीप सिंह जी श्री हरमंदिर साहब पहुंच गए और अपना सिर परिक्रमा में चढ़ाकर प्राण त्याग दिए बाबा दीप सिंह जी की यह कुर्बानी संपूर्ण सिख पंथ के लिए एक मिसाल बनी आज भी धर्म के प्रति उनकी निष्ठा और त्याग पंत का मार्ग प्रदर्शित करता है
बाबा दीप सिंह का इतिहास